सुधि पाठकों,
उत्तराखंड का नाम आते ही जेहन में हिमाच्छादित पर्वत, कलकल बहती सदानीरा नदियां, गाड-गदेरे, झरने, बुग्याल, जैव विविधता से भरे जंगल, दुर्लभ वन्य जीव, दुर्गम रास्ते, सर्पीली सड़कें, चार धाम, महाभारत कालीन संस्कृति और पहाड़ के सीधे सरल लोगों की तस्वीर घूम जाती है। यही सब उत्तराखंड के देश-दुनिया के अन्य हिस्सों से कुछ अलग होने का अहसास कराता है। पहाड़ की विषम भौगोलिक परिस्थितियों को देखते हुए जनता ने अलग राज्य की लड़ाई लड़ी, जिसके परिणामस्वरूप अलग उत्तराखंड राज्य अस्तित्व में आया।
अब उत्तराखंड बने साढ़े सत्रह साल बीत चुके हैं, लेकिन पहाड़ के हालात ज्यादा कुछ नहीं बदले हैं। विकास के नाम पर राज्य के तीन मैदानी जिलों हरिद्वार, देहरादून और उधमसिंहनगर में ही बजट बहाया जा रहा है और यही कारण है कि शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाएं इन्हीं शहरों में सिमटती जा रही हैं और पहाड़ के सीधे-सादे लोग पलायन कर इन शहरों की भीड़ में खोते जा रहे हैं। वह समय दूर नहीं जब पहाड़ के गांव वीरान होकर जंगलों में तब्दील हो जाएंगे। सरकारों की नीतियां भी कुछ इसी ओर इशारा कर रही हैं।
वह चाहे ईको सेंसिटिव जोन हो या फिर वन अधिनियम, पहाड़ का विकास इन कानूनों की बंदिशों में उलझ कर रह गया है। सरकारें अभी तक पर्यावरण को संरक्षित रखते हुए पहाड़ के विकास का खाका नहीं खींच पायी हैं। पहाड़ की व्यथा देखकर मन व्यथित होता है। इस व्यथा को खबरों के माध्यम से जनसामान्य और सरकार के नीति नियंताओं और नुमाइंदों तक पहुंचाने का प्रयास 'अरण्यरोदन टाइम्स' के माध्यम से किया जाएगा। इसके साथ ही पहाड़ में मौजूद अपार संभावनाओं को आगे लाकर इस पहाड़ी राज्य की अवधारणा को सार्थक करने का प्रयास भी किया जाएगा। इसमें आप सभी के सुझाव और सहयोग अपेक्षित है।
आपके सुझावों का हमें इंतजार!
संपर्क करे - +91 9837945837
good job
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ReplyDeleteबलवीर परमार
सुधि पाठकों,
उत्तराखंड का नाम आते ही जेहन में हिमाच्छादित पर्वत, कलकल बहती सदानीरा नदियां, गाड-गदेरे, झरने, बुग्याल, जैव विविधता से भरे जंगल, दुर्लभ वन्य जीव, दुर्गम रास्ते, सर्पीली सड़कें, चार धाम, महाभारत कालीन संस्कृति और पहाड़ के सीधे सरल लोगों की तस्वीर घूम जाती है। यही सब उत्तराखंड के देश-दुनिया के अन्य हिस्सों से कुछ अलग होने का अहसास कराता है। पहाड़ की विषम भौगोलिक परिस्थितियों को देखते हुए जनता ने अलग राज्य की लड़ाई लड़ी, जिसके परिणामस्वरूप अलग उत्तराखंड राज्य अस्तित्व में आया।
अब उत्तराखंड बने साढ़े सत्रह साल बीत चुके हैं, लेकिन पहाड़ के हालात ज्यादा कुछ नहीं बदले हैं। विकास के नाम पर राज्य के तीन मैदानी जिलों हरिद्वार, देहरादून और उधमसिंहनगर में ही बजट बहाया जा रहा है और यही कारण है कि शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाएं इन्हीं शहरों में सिमटती जा रही हैं और पहाड़ के सीधे-सादे लोग पलायन कर इन शहरों की भीड़ में खोते जा रहे हैं। वह समय दूर नहीं जब पहाड़ के गांव वीरान होकर जंगलों में तब्दील हो जाएंगे। सरकारों की नीतियां भी कुछ इसी ओर इशारा कर रही हैं।
वह चाहे ईको सेंसिटिव जोन हो या फिर वन अधिनियम, पहाड़ का विकास इन कानूनों की बंदिशों में उलझ कर रह गया है। सरकारें अभी तक पर्यावरण को संरक्षित रखते हुए पहाड़ के विकास का खाका नहीं खींच पायी हैं। पहाड़ की व्यथा देखकर मन व्यथित होता है। इस व्यथा को खबरों के माध्यम से जनसामान्य और सरकार के नीति नियंताओं और नुमाइंदों तक पहुंचाने का प्रयास 'अरण्यरोदन टाइम्स' के माध्यम से किया जाएगा। इसके साथ ही पहाड़ में मौजूद अपार संभावनाओं को आगे लाकर इस पहाड़ी राज्य की अवधारणा को सार्थक करने का प्रयास भी किया जाएगा। इसमें आप सभी के सुझाव और सहयोग अपेक्षित है।
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Good job sir
ReplyDeletePlease cl me when you feel free, 9045727003, there are so many ideas in my mind, we can discuss on call..
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